Thursday, December 9, 2010

मंदिर और तुम्हारा घर

मंदिर से
जब भी गुजरता हूँ
लगता है
तुम हो वहां
तुम्हारे घर से
जब भी गुजरता हूँ
मंदिर सा लगता है
 
चढ़ते  हुए  सीढियां 
मंदिर की
लगता है 
तुम हो साथ 
बांधे दोनों हाथ  
श्रद्धा से
 
ईश्वर के सामने
करता हूँ आराधना
बंद आँखों के सामने
आ जाता है 
चेहरा तुम्हारा मुस्कुराता 
कहता है 
क्यों हो झोली फैलाये
सब कुछ तो है
पास तुम्हारे
 
पहुंचना चाहता हूँ जब 
तुम्हारे घर 
पवित्रता बढ़ जाती है मन की 
लगता है कदम 
बढ़ रहे है 
देवालय की ओर 
कानों में शंख ध्वनि 
सुनाई देने लगती है  
 
देखकर तुम्हें
शांत हो जाता है मन
मानो पा लिया हो मोक्ष
मिल गया हो निर्वाण
संतुष्टि का भाव
भर जाता है मन प्राण में
फिर कुछ और की
कामना ही नहीं बचती .
 
असमंजस में हूँ
कि मंदिर में
मिलती हो तुम
और तुम्हारे घर भगवान
घर है मंदिर
या मंदिर है तुम्हारा घर
दोनों एक दूसरे में
विलीन हो गए है
अब तुम्हीं बताओ
जाऊं किधर मैं .
 

Wednesday, December 8, 2010

अरुण चन्द्र रॉय का नया सरोकार .. अपने सरोकार, अपनों के लिए ....

प्रिय मित्रों
शायद इस तरह मेरा परिचय नहीं था. मैं अरुण चन्द्र रॉय , सरोकार ब्लॉग के माध्यम से आम जीवन से मेरे सरोकार को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करता था. कल शाम से यह ब्लॉग ना जाने क्यों खुल नहीं रहा.. मेरे डैशबोर्ड से भी गायब है... सरोकार ब्लॉग पर मेरी कोई १८० कवितायें थी..और इस से अधिक करीब ९० फालोवर मित्र....  इनका कोई बैक अप भी नहीं है मेरे पास... पता नही यह ब्लॉग फिर कभी वापिस आयेगा कि नहीं.. हमारे गाँव में यदि कोई खो जाता था.. और यदि उसके लौटने की आशंका नहीं भी होती थी तब भी १२ वर्षों तक उसका इन्तजार किया जाता था.. इन्तजार मैं भी करूँगा...कोई मदद कर सकें उसे वापिस लाने या उसके डाटा को वापिस लाने के लिए तो बहुत आभारी रहूँगा...  लेकिन किसी के होने या ना होने से जिन्दगी रूकती नहीं है... सो नहीं रुकूँगा मैं भी ...  अपना सरोकार... अपने आसपास की दुनिया के प्रति मेरा सरोकार जारी रहेगा... कविता मेरी प्रतिबद्धता है वहां के लिए जहाँ मैं रहता हूँ.. जहाँ से आया हूँ.. या कहिये जीवन के लिए... कोरियर ब्यॉय कविता के पोस्ट करते ही  सरोकार खो गया मेरा.. इसी कविता से फिर "अपने सरोकार" को  शुरू कर रहा हूँ... वही पुराना प्यार, स्नेह एवं आशीष देंगे... प्रस्तुत है... अरुण चन्द्र रॉय का नया सरोकार .. अपने सरोकार, अपनों के लिए ....


कोरियर ब्यॉय

मिल जाता है
अक्सर ही
दफ्तर की 
सीढ़ियों में
चढ़ते उतरते
हाथ में नीला सा बैग लिए
जिस पर छपा है उसकी कंपनी का
बड़ा सा 'लोगो'
कंपनी के कारपोरेट रंग का
यूनिफार्म पहने
स्मार्ट सा कोरियर ब्यॉय

दस मंजिल तक
चढ़ जाता है वह
किस्तों में
हाँफते हुए
भागते हुए
एक दफ्तर से
दूसरे दफ्तर
बांटते पैकेट
लिफाफे
जिसे गारंटी से डिलीवर करना होता है
दोपहर बारह बजे से पहले
कंपनी की कारपोरेट नीति और
प्रीमियम सेवा के लिए
प्रीमियम दाम के बदले

लगता है
कभी कभी
मुझे खेतों के बैल
बंधुआ मजूर सा
वह स्मार्ट सा
कोरियर ब्यॉय
जिसे नहीं पता कि
न्यूनतम मजदूरी क्या है
इस मेट्रो शहर में .