Monday, March 7, 2011

उतनी दूर मत ब्याहना बाबा! -निर्मला पुत्तुल

आज सुबह सुबह जब ऑनलाइन हुआ तो देखा श्री ललित शर्मा जी ने  अपने ब्लॉग 'ब्लॉग फार वार्ता ' पर  आदिवासी कवियत्री निर्मला पुत्तुल जी की एक कविता प्रस्तुतु की है . उसी कविता पर ललित जी से चर्चा करते हुए उन्होंने एक कविता निर्मला पुत्तुल जी की मुझे पढवाई ... कविता पढ़कर मैं उद्वेलित हूँ... कविता के प्रभाव को मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा... सो अपने पाठको से यह  कविता साझा कर रहा हूँ.. ललित जी का बहुत बहुत आभार (निर्मला पुत्तुल जी का विशेष आभार ! )  बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने खातिर
घर की बकरियां बेचनी पड़े तुम्हे


मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज्यादा
ईश्वर बसते हों


जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहां मत कर आना मेरा लगन
वहां तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज्यादा तेज दौड़ती हों मोटर गाडियां
ऊंचे ऊंचे मकान
और दुकान हों बड़े बड़े


उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा सा खुला आंगन न हो
मुर्गे की बांग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे.
  मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाई और हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर
काहिल निक्कम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियां उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी खातिर


कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूंगी बदल लुंगी
अच्छा-ख़राब होने पर


जो बात-बात में
बात करे लाठी डंडा की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाये बंगाल,आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाये
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया


और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
  ब्याहना तो वहां ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल
मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....

महुआ का लट और
खजूर का गुड बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी खातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू,-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी
  मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गांव का हाल-चल
चितकबरी गैया के ब्याने की खबर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे
उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे!

उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक
  चुनना वर ऐसा
जो बजता हों बांसुरी सुरीली
और ढोल मांदर बजाने में हो पारंगत


बसंत के दिनों में ला सके जो रोज
मेरे जुड़े की खातिर पलाश के फुल
जिससे खाया नहीं जाये
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे.