आज सुबह सुबह जब ऑनलाइन हुआ तो देखा श्री ललित शर्मा जी ने अपने ब्लॉग 'ब्लॉग फार वार्ता ' पर आदिवासी कवियत्री निर्मला पुत्तुल जी की एक कविता प्रस्तुतु की है . उसी कविता पर ललित जी से चर्चा करते हुए उन्होंने एक कविता निर्मला पुत्तुल जी की मुझे पढवाई ... कविता पढ़कर मैं उद्वेलित हूँ... कविता के प्रभाव को मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा... सो अपने पाठको से यह कविता साझा कर रहा हूँ.. ललित जी का बहुत बहुत आभार (निर्मला पुत्तुल जी का विशेष आभार ! ) बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने खातिर
घर की बकरियां बेचनी पड़े तुम्हे
मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज्यादा
ईश्वर बसते हों
जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहां मत कर आना मेरा लगन
वहां तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज्यादा तेज दौड़ती हों मोटर गाडियां
ऊंचे ऊंचे मकान
और दुकान हों बड़े बड़े
उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा सा खुला आंगन न हो
मुर्गे की बांग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे.
जहाँ मुझसे मिलने जाने खातिर
घर की बकरियां बेचनी पड़े तुम्हे
मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज्यादा
ईश्वर बसते हों
जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहां मत कर आना मेरा लगन
वहां तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज्यादा तेज दौड़ती हों मोटर गाडियां
ऊंचे ऊंचे मकान
और दुकान हों बड़े बड़े
उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा सा खुला आंगन न हो
मुर्गे की बांग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे.
मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाई और हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर
काहिल निक्कम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियां उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी खातिर
कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूंगी बदल लुंगी
अच्छा-ख़राब होने पर
जो बात-बात में
बात करे लाठी डंडा की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाये बंगाल,आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाये
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया
और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
ब्याहना तो वहां ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल
मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....
महुआ का लट और
खजूर का गुड बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी खातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू,-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी
मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गांव का हाल-चल
चितकबरी गैया के ब्याने की खबर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे
उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे!
उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक
चुनना वर ऐसा
जो बजता हों बांसुरी सुरीली
और ढोल मांदर बजाने में हो पारंगत
बसंत के दिनों में ला सके जो रोज
मेरे जुड़े की खातिर पलाश के फुल
जिससे खाया नहीं जाये
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे.
जो पोचाई और हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर
काहिल निक्कम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियां उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी खातिर
कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूंगी बदल लुंगी
अच्छा-ख़राब होने पर
जो बात-बात में
बात करे लाठी डंडा की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाये बंगाल,आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाये
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया
और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
ब्याहना तो वहां ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल
मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....
महुआ का लट और
खजूर का गुड बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी खातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू,-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी
मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गांव का हाल-चल
चितकबरी गैया के ब्याने की खबर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे
उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे!
उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक
चुनना वर ऐसा
जो बजता हों बांसुरी सुरीली
और ढोल मांदर बजाने में हो पारंगत
बसंत के दिनों में ला सके जो रोज
मेरे जुड़े की खातिर पलाश के फुल
जिससे खाया नहीं जाये
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे.
नारी ह्रदय की वेदना का सुन्दर चित्रण है मगर आज ऐसा सोचने वाली नारियां भी कम होने लगी हैं पैसे की चकाचौंध ने सबके आंखो पर पट्टी बांध रखी है…………आज तो बेटी कहती है…………।
ReplyDeleteबाबा वर तुम मत ढूँढना
मै जिसे लाऊँ बस
उसे स्वीकार कर लेना
पैसे ,स्टेट्स ,रूप बिना
क्या कोई स्थान मिलता है
अब तो वर का सिर्फ़
बैंक बैलेंस से चयन होता है
जिससे खाया नहीं जाये
ReplyDeleteमेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे.
मर्मस्पर्शी अर्थों को समेटे हुए अच्छी लगी , बधाई
महिला दिवस पे नारी ह्रदय के वेदना को जागृत करने वाली कविता
ReplyDeleteपढवाने के लिए धन्यवाद्......
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लगी ये कविता! निर्मला जी की कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह वाह के कहे आपके शब्दों के बारे में जीतन कहे उतन कम ही है | अति सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद् आपको असी पोस्ट करने के लिए
कभी फुरसत मिले तो मेरे बलों पे आये
दिनेश पारीक
aapka aur Nirmala ji ka ko haardik dhnyawaad... kisi ladki ka man yu likh diya... waah...
ReplyDeleteवाह वाह! बेहतरीन प्रस्तुति! अपने एक युवती के भावों को शत-प्रतिशत व्यक्त किया है...
ReplyDeleteबधाई स्वीकार करें!
नारी के मन की वेदना इतनी खूबसूरती से प्रस्तुत करना मुश्किल होता है आपने सच में बहुत खूबसूरती इसे कर दिखाया नारी के अंतर मन की भावना का सफल चित्रण |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना |
आपकी इस कविता से डॉ. विनोद राय की वह कविता याद आ गई जो 1961 में आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी और हम लोग बहुत रोए थे। उसमें बेटी अपने पिता की ग़रीबी और जवान बेटी को घर से बिदा करने की जतन में परदेश जाकर धन कमाने के लिए घर से दूर जाने पर दुःखी हो जाती है तथा चिंता में क्षय रोग की शिकार हो जाती है। परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो जाती है। चिता रोपण तक का बहुत ही दारुण चित्रण। नारी के मन की वेदना का इतनी संजीदगी से चित्रण के लिए बधाई।
ReplyDeletebahut sunder kavita nari man ki saral sulabh chah ..padhvane ke liye dhanyavad..
ReplyDeleteअरुण जी,
ReplyDeleteबहुत खोज कर पहली बार पहुंचे आपके ब्लॉग पर और फिर लगा की हम kitna कुछ पढ़ने वंचित रहे अब तक. निर्मला जी की कविता एक बहुत सुंदर उद्देश्यपूर्ण और सार्थक सोच वाली है. इसके लिए दोनों को धन्यवाद.
बहुत खूब नारी मन तक पहुँच बनाई आपने
ReplyDeletefacebook पर भी पढ़ी थी और दुबारा यहाँ पढ़ना अच्छा लगा निर्मला जी को बधाई
ReplyDeleteउस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
ReplyDeleteजिस घर में बड़ा सा खुला आंगन न हो
मुर्गे की बांग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे.
मत चुनना ऐसा वर
jane kitne vyathit manobhawon ko kahti rachna
कोमल भावों से सजी , निसंदेह एक उत्कृष्ट रचना ।
ReplyDeleteअरुण जी बहुत-बहुत आभार इस सुन्दर रचना को पढवाने का।
मत ब्याहना उस देश में
ReplyDeleteजहाँ आदमी से ज्यादा
ईश्वर बसते हों
behatreen rachna...
aisi hi kai abhilashayen hoti hain, kuchh puri ho paati hain kuch nahi....
अरुण जी बहुत-बहुत आभार इस सुन्दर रचना को पढवाने के liye ....
ReplyDeleteअरुण जी
ReplyDeleteनिर्मलाजी की कविता पढवाने के लिए आभार |अच्छी प्रस्तुति |
आशा
नारी के मन की वेदना को खूबसूरती से प्रस्तुत करती सुन्दर रचना...
ReplyDeletekunware man ya yahi hai hamesha kahna... aise mat byahna...
ReplyDeletethank you so much for sharing such poem...
कविता तो अच्छी है लेकिन कह दिया जाय इस लड़की से कि क्यों सपने देखती है?, तू बिनव्याही रह जाएगी क्योंकि ऐसा वर नहीं मिल सकेगा शायद…
ReplyDeleteek ladki ki kahani aapki jubani
ReplyDeletebahut hi umda kriti .Nari ke man ke bhavo ko dershati sunder rachna
इस कविता में एक स्त्री का भीतर और बाहर-दोनों एक विस्फोट के साथ प्रकट हुआ है। कई वाक्यांशों को आधुनिक अर्थों में देखने पर जीवन और सामाजिकता की कई परतें खुलती हैं और हम उस दुनिया से रूबरू होते हैं जो वैसी नहीं रह गई है जैसी निश्चय ही हो सकती थी!
ReplyDelete