Friday, March 16, 2012

सचिन को बधाई


"Dreams do come true. I waited for 22 years to win the World Cup and so my advise to youngsters would be to chase their dreams."
- Sachin Tendulkar (After Completing his 100th Century)

" सपने सच होते हैं.  विश्व कप जीतने के लिए  मैंने २२ वर्षों तक इंतजार किया इसलिए मैं युवाओं को सलाह दूंगा कि वे अपने सपने को सच करने के लिए कोशिश करते रहे." 
सचिन तेंदुलकर (अपने सौवें शतक के बाद ) 


Monday, March 7, 2011

उतनी दूर मत ब्याहना बाबा! -निर्मला पुत्तुल

आज सुबह सुबह जब ऑनलाइन हुआ तो देखा श्री ललित शर्मा जी ने  अपने ब्लॉग 'ब्लॉग फार वार्ता ' पर  आदिवासी कवियत्री निर्मला पुत्तुल जी की एक कविता प्रस्तुतु की है . उसी कविता पर ललित जी से चर्चा करते हुए उन्होंने एक कविता निर्मला पुत्तुल जी की मुझे पढवाई ... कविता पढ़कर मैं उद्वेलित हूँ... कविता के प्रभाव को मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा... सो अपने पाठको से यह  कविता साझा कर रहा हूँ.. ललित जी का बहुत बहुत आभार (निर्मला पुत्तुल जी का विशेष आभार ! )  बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने खातिर
घर की बकरियां बेचनी पड़े तुम्हे


मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज्यादा
ईश्वर बसते हों


जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहां मत कर आना मेरा लगन
वहां तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज्यादा तेज दौड़ती हों मोटर गाडियां
ऊंचे ऊंचे मकान
और दुकान हों बड़े बड़े


उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा सा खुला आंगन न हो
मुर्गे की बांग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे.
  मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाई और हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर
काहिल निक्कम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियां उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी खातिर


कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूंगी बदल लुंगी
अच्छा-ख़राब होने पर


जो बात-बात में
बात करे लाठी डंडा की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाये बंगाल,आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाये
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया


और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
  ब्याहना तो वहां ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल
मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....

महुआ का लट और
खजूर का गुड बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी खातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू,-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी
  मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गांव का हाल-चल
चितकबरी गैया के ब्याने की खबर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे
उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे!

उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक
  चुनना वर ऐसा
जो बजता हों बांसुरी सुरीली
और ढोल मांदर बजाने में हो पारंगत


बसंत के दिनों में ला सके जो रोज
मेरे जुड़े की खातिर पलाश के फुल
जिससे खाया नहीं जाये
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे.

Sunday, February 20, 2011

कुछ कहा नहीं जा सकता

इसमें कोई दो मत नहीं है की 'हंस' हिंदी साहित्य की देश की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका है. वर्षो से सुनते और पढ़ते आ रहा हूँ हंस को. सुना है हंस में कहानियों और कविताओं की प्रतीक्षा सूची काफी लम्बी होती है... साल साल भर लग जाते हैं स्वीकृत रचनाओं को छपने में. हंस हिंदी साहित्य का बाज़ार भी है और ब्रांड भी.. यु कहिये की साहित्य का यूनिलीवर है. जनवरी के अंक में कवि सूरजपाल चौहान की एक कविता छपी है 'कुछ कहा नहीं जा सकता' शीर्षक से. कविता की संक्षिप्त भूमिका में कवि का कहना है, "'आउटलुक' (हिंदी) अगस्त २०१० अंक में प्रकाशित मनीषा के लेख 'फतवागीरो के फितूर  का दिवालियापन' को पढ़ते हुए" .. मतलब यह कविता अगस्त २०१० में लिखी गई और जनवरी, २०११ के अंक में छप भी गई.. कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'हंस' में तत्काल छपने के लिए क्या जरुरी है.. अपने अल्पज्ञान के कारण क्षमा सहित ! 

कुछ कहा नहीं जा सकता 
(कवि श्री सूरजपाल चौहान की हंस जनवरी २०११ में प्रकाशित कविता) 

बहन,
तुमने सच लिखा है 
कि -
परमात्मा औरतो के 
स्तन देखकर 
हो जाता है उत्तेजित .

उसकी-
काम-वासना जाग्रत हो जाती है
बहन-बेटी की
मध्यरेखा देखते ही
उतारू हो जाता है
उपद्रव करने को .

बहन,
तुम्हे ब्रह्मा की कहानी तो ज्ञात होगी 
बेटी सरस्वती ....
और फिर.. पुत्र...
नारद .

भगवान
या कहें 
परमात्मा का कोई ठौर ठिकाना नहीं
उसे-
कोई लाज-शर्म नहीं. 
अपनी ही
बहन या बेटी के अंगो को देखकर 
कब मोहित हो जाये 
कुछ कहा नहीं जा सकता. 

 हंस के फ़रवरी अंक में पाठको के पन्ने पर इस कविता पर कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है... यदि आई भी होगी तो शायद संपादक महोदय ने उन्हें स्थान देने में पक्षपात किया होगा. अब आप निर्णय करें कि इस कविता में ' ईश्वर ' को गरियाने के अतिरिक्त कौन सा सौंदर्य, भाव या सन्देश है. 

Thursday, December 9, 2010

मंदिर और तुम्हारा घर

मंदिर से
जब भी गुजरता हूँ
लगता है
तुम हो वहां
तुम्हारे घर से
जब भी गुजरता हूँ
मंदिर सा लगता है
 
चढ़ते  हुए  सीढियां 
मंदिर की
लगता है 
तुम हो साथ 
बांधे दोनों हाथ  
श्रद्धा से
 
ईश्वर के सामने
करता हूँ आराधना
बंद आँखों के सामने
आ जाता है 
चेहरा तुम्हारा मुस्कुराता 
कहता है 
क्यों हो झोली फैलाये
सब कुछ तो है
पास तुम्हारे
 
पहुंचना चाहता हूँ जब 
तुम्हारे घर 
पवित्रता बढ़ जाती है मन की 
लगता है कदम 
बढ़ रहे है 
देवालय की ओर 
कानों में शंख ध्वनि 
सुनाई देने लगती है  
 
देखकर तुम्हें
शांत हो जाता है मन
मानो पा लिया हो मोक्ष
मिल गया हो निर्वाण
संतुष्टि का भाव
भर जाता है मन प्राण में
फिर कुछ और की
कामना ही नहीं बचती .
 
असमंजस में हूँ
कि मंदिर में
मिलती हो तुम
और तुम्हारे घर भगवान
घर है मंदिर
या मंदिर है तुम्हारा घर
दोनों एक दूसरे में
विलीन हो गए है
अब तुम्हीं बताओ
जाऊं किधर मैं .
 

Wednesday, December 8, 2010

अरुण चन्द्र रॉय का नया सरोकार .. अपने सरोकार, अपनों के लिए ....

प्रिय मित्रों
शायद इस तरह मेरा परिचय नहीं था. मैं अरुण चन्द्र रॉय , सरोकार ब्लॉग के माध्यम से आम जीवन से मेरे सरोकार को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करता था. कल शाम से यह ब्लॉग ना जाने क्यों खुल नहीं रहा.. मेरे डैशबोर्ड से भी गायब है... सरोकार ब्लॉग पर मेरी कोई १८० कवितायें थी..और इस से अधिक करीब ९० फालोवर मित्र....  इनका कोई बैक अप भी नहीं है मेरे पास... पता नही यह ब्लॉग फिर कभी वापिस आयेगा कि नहीं.. हमारे गाँव में यदि कोई खो जाता था.. और यदि उसके लौटने की आशंका नहीं भी होती थी तब भी १२ वर्षों तक उसका इन्तजार किया जाता था.. इन्तजार मैं भी करूँगा...कोई मदद कर सकें उसे वापिस लाने या उसके डाटा को वापिस लाने के लिए तो बहुत आभारी रहूँगा...  लेकिन किसी के होने या ना होने से जिन्दगी रूकती नहीं है... सो नहीं रुकूँगा मैं भी ...  अपना सरोकार... अपने आसपास की दुनिया के प्रति मेरा सरोकार जारी रहेगा... कविता मेरी प्रतिबद्धता है वहां के लिए जहाँ मैं रहता हूँ.. जहाँ से आया हूँ.. या कहिये जीवन के लिए... कोरियर ब्यॉय कविता के पोस्ट करते ही  सरोकार खो गया मेरा.. इसी कविता से फिर "अपने सरोकार" को  शुरू कर रहा हूँ... वही पुराना प्यार, स्नेह एवं आशीष देंगे... प्रस्तुत है... अरुण चन्द्र रॉय का नया सरोकार .. अपने सरोकार, अपनों के लिए ....


कोरियर ब्यॉय

मिल जाता है
अक्सर ही
दफ्तर की 
सीढ़ियों में
चढ़ते उतरते
हाथ में नीला सा बैग लिए
जिस पर छपा है उसकी कंपनी का
बड़ा सा 'लोगो'
कंपनी के कारपोरेट रंग का
यूनिफार्म पहने
स्मार्ट सा कोरियर ब्यॉय

दस मंजिल तक
चढ़ जाता है वह
किस्तों में
हाँफते हुए
भागते हुए
एक दफ्तर से
दूसरे दफ्तर
बांटते पैकेट
लिफाफे
जिसे गारंटी से डिलीवर करना होता है
दोपहर बारह बजे से पहले
कंपनी की कारपोरेट नीति और
प्रीमियम सेवा के लिए
प्रीमियम दाम के बदले

लगता है
कभी कभी
मुझे खेतों के बैल
बंधुआ मजूर सा
वह स्मार्ट सा
कोरियर ब्यॉय
जिसे नहीं पता कि
न्यूनतम मजदूरी क्या है
इस मेट्रो शहर में .