Sunday, February 20, 2011

कुछ कहा नहीं जा सकता

इसमें कोई दो मत नहीं है की 'हंस' हिंदी साहित्य की देश की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका है. वर्षो से सुनते और पढ़ते आ रहा हूँ हंस को. सुना है हंस में कहानियों और कविताओं की प्रतीक्षा सूची काफी लम्बी होती है... साल साल भर लग जाते हैं स्वीकृत रचनाओं को छपने में. हंस हिंदी साहित्य का बाज़ार भी है और ब्रांड भी.. यु कहिये की साहित्य का यूनिलीवर है. जनवरी के अंक में कवि सूरजपाल चौहान की एक कविता छपी है 'कुछ कहा नहीं जा सकता' शीर्षक से. कविता की संक्षिप्त भूमिका में कवि का कहना है, "'आउटलुक' (हिंदी) अगस्त २०१० अंक में प्रकाशित मनीषा के लेख 'फतवागीरो के फितूर  का दिवालियापन' को पढ़ते हुए" .. मतलब यह कविता अगस्त २०१० में लिखी गई और जनवरी, २०११ के अंक में छप भी गई.. कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'हंस' में तत्काल छपने के लिए क्या जरुरी है.. अपने अल्पज्ञान के कारण क्षमा सहित ! 

कुछ कहा नहीं जा सकता 
(कवि श्री सूरजपाल चौहान की हंस जनवरी २०११ में प्रकाशित कविता) 

बहन,
तुमने सच लिखा है 
कि -
परमात्मा औरतो के 
स्तन देखकर 
हो जाता है उत्तेजित .

उसकी-
काम-वासना जाग्रत हो जाती है
बहन-बेटी की
मध्यरेखा देखते ही
उतारू हो जाता है
उपद्रव करने को .

बहन,
तुम्हे ब्रह्मा की कहानी तो ज्ञात होगी 
बेटी सरस्वती ....
और फिर.. पुत्र...
नारद .

भगवान
या कहें 
परमात्मा का कोई ठौर ठिकाना नहीं
उसे-
कोई लाज-शर्म नहीं. 
अपनी ही
बहन या बेटी के अंगो को देखकर 
कब मोहित हो जाये 
कुछ कहा नहीं जा सकता. 

 हंस के फ़रवरी अंक में पाठको के पन्ने पर इस कविता पर कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है... यदि आई भी होगी तो शायद संपादक महोदय ने उन्हें स्थान देने में पक्षपात किया होगा. अब आप निर्णय करें कि इस कविता में ' ईश्वर ' को गरियाने के अतिरिक्त कौन सा सौंदर्य, भाव या सन्देश है.