मंदिर से
जब भी गुजरता हूँ
लगता है
तुम हो वहां
तुम्हारे घर से
जब भी गुजरता हूँ
मंदिर सा लगता है
लगता है
तुम हो वहां
तुम्हारे घर से
जब भी गुजरता हूँ
मंदिर सा लगता है
चढ़ते हुए सीढियां
मंदिर की
लगता है
तुम हो साथ
बांधे दोनों हाथ
श्रद्धा से
ईश्वर के सामने
करता हूँ आराधना
बंद आँखों के सामने
आ जाता है
चेहरा तुम्हारा मुस्कुराता
कहता है
क्यों हो झोली फैलाये
सब कुछ तो है
पास तुम्हारे
पहुंचना चाहता हूँ जब
तुम्हारे घर
पवित्रता बढ़ जाती है मन की
लगता है कदम
बढ़ रहे है
देवालय की ओर
कानों में शंख ध्वनि
सुनाई देने लगती है
देखकर तुम्हें
शांत हो जाता है मन
मानो पा लिया हो मोक्ष
मिल गया हो निर्वाण
संतुष्टि का भाव
भर जाता है मन प्राण में
फिर कुछ और की
कामना ही नहीं बचती .
असमंजस में हूँ
कि मंदिर में
मिलती हो तुम
और तुम्हारे घर भगवान
घर है मंदिर
या मंदिर है तुम्हारा घर
दोनों एक दूसरे में
विलीन हो गए है
अब तुम्हीं बताओ
जाऊं किधर मैं .
GITHTHAM GHUTHTHAA KAVITAA HAI.
ReplyDeleteजब प्यार पूजा हो जाए तो ऐसा ही लगता है, होता है।
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteअसमंजस में हूँ
ReplyDeleteकि मंदिर में
मिलती हो तुम
और तुम्हारे घर भगवान
घर है मंदिर
या मंदिर है तुम्हारा घर
दोनों एक दूसरे में
विलीन हो गए है
अब तुम्हीं बताओ
जाऊं किधर मैं .
______________________
काबे का एहतराम भी मेरी नज़र में है
सर किस तरफ झुकाऊं तुझे देखने के बाद
जब पता न चले कि मन का समर्पण कहाँ है तो यह दुविधा आवश्यक है।
ReplyDelete'man ke nayan hazar'
ReplyDeleteघर है मंदिर
ReplyDeleteया मंदिर है तुम्हारा घर
दोनों एक दूसरे में
विलीन हो गए है
वाह...अद्भुत रचना है ये आपकी...मेरी बधाई स्वीकार करें.
नीरज
namaskaar !
ReplyDeleteishwar wahi hai jaha shradha hoti hai , sunder .
sadhuwad
कुछ इश्क विश्क का चक्कर लगता है
ReplyDeleteपवित्र प्रेम का दिव्य स्वरूप ऐसा ही होता है जहाँ पता ही नही चलता कौन किसमे समाहित है या एक दूजे से कौन जुदा है या कहिये जहाँ "मै" और "तू" का भेद मिट जाये बस सिर्फ़ प्रेम ही रह जाये वो ही प्रेम की पूर्णता है…………बेहद उम्दा अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteitna pavitra prem ho pata hai kya???
ReplyDeletesirf shabdo ki baat lagti hai...:)
Arun sir! chhoti muh badi baat.....par sach kahun...ye aapke jod ki kavita nhi haiiii.....ye to ham jaise so called kavi likhe to chalega:)
aap to vartmaan ko chhute ho to maja aa jata hai!!
anyway, mere lekhni se behtar hai...
अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां
ReplyDeleteकिसकी बात करें-आपकी प्रस्तुति की या आपकी रचनाओं की। सब ही तो आनन्ददायक हैं।
indu puri goswami to me
ReplyDelete"ओ माय गोड! कितनी प्यारी कविता है.एकदम मुझ-सा सोचते हो.सच्ची.यहीं आ कर प्यार खुदा बन जाता है एक अलौकिक प्रेम यानि खुदा,ईश्वर,भगवान कुछ भी नाम दे दो सब एक हो जाते है और प्रेम करने वाले???? खुद भी इश्वर का ही रूप.....एक दुसरे के लिए."....
@ मानिक भाई
ReplyDelete@ मनोज सर
@ शिखा जी
@प्रदीप कान्त जी
@मीनू जी
@ नीरज गोस्वामी जी
@ सुनील जी
@ कुवर जी
@ वंदना जी
@ संजय भाई
@ इंदु जी
मेरे नए ब्लॉग पर आने और सहयोग के लिए बहुत बहुत आभार !
@ मुकेश भाई
ReplyDeleteआपका बेबाकीपन अच्छा लगा... आपकी अपेक्षा पर खड़ा उतरु इसकी कोशिश करूँगा.. प्रेम भी जीवन का एक अहम् हिस्सा है.. मुझेसे बेहतर आप जानते हैं.. मेरी कविता एक रंग थी उस प्रेम की.. उस से अधिक कुछ नहीं..
मुकेश जी मेरे छोटे भाई हैं, लिहाज़ा उन्हीं की बात का उत्तर देते हुए अपनी बात रखता हूँ... पवित्र प्रेम होता है क्या.. यह सवाल उनकी ही एक कविता से उपजा है ( मुकेश भाई, भूल तो नहीं कर रहा ना).. और सच भी क्योंकि जो उन्होंने देखा वो सच था... लेकिन सचाई यह भी है कि आज सौतेली माँ के कहने पर बाप की बात मान कोई 14 सालों के लिए घर नहीं छोड़ देता... कोई ऐसा भाई नहीं मिलता जो बिना कुछ सोचे बड़े भाई के पीछे चल देता है, एक पत्नी 14 साल चौखट पर खड़ी अपने पति की प्रतीक्षा करती नहीं रह जाती… लेकिन वाल्मीकि का लिखा वो आज के समय में इर्रेलेवेंट हो चुका नॉवेल आज भी लाल कपड़े में लिपटा पूजा घर में रखा जाता है.. सिर्फ इस उम्मीद पर कि ये किरदार जो उस किताब में क़ैद हैं हमारे लिए मर्यादा और परंपरा की एक मेयार, एक मानदण्ड!
ReplyDeleteयह कविता उसी प्रेम को रेखांकित करती है. मुझे तो ऐसा लगा कि परदेस में रहते हुए ये मेरे और पटना में रह रही मेरी सत्तर वर्षीया गर्लफ्रेंड की कहानी है, जिसे मैं अपनी माँ कहता हूँ.
ब्याह कर जिस घर में आई थी 53 साल पहले आज भी हमको मंदिर के तरह लगता है और जिस भी मंदिर में जाता हूँ पता नहीं क्यूँ हर देवता की मूरत में वही नज़र आती है! कभी कभी लगता हैः
असमंजस में हूँ
कि मंदिर में
मिलती हो तुम
और तुम्हारे घर भगवान
घर है मंदिर
या मंदिर है तुम्हारा घर
दोनों एक दूसरे में
विलीन हो गए है
अब तुम्हीं बताओ
जाऊं किधर मैं .
@सलिल जी
ReplyDeleteआपकी इस टिप्पणी से मेरी कविता को पुनः परिभाषित हो गई.. कविता लिखते समय जिस द्वन्द को मैं महसूस कर रहा था आपने उसे रेखांकित कर दिया है... आपका बहुत बहुत आभार...
Dr.mukesh gautam to me
ReplyDelete"ACHCHI RACHANA HAI. SHABDO KA CHAYAN AUR STHAN BHI ACHCHA HAI . BADHAI. Dr. MUKESH GAUTAM"
Aapka blog vaapas milne par bahut bahut badhaai ....
ReplyDeleteमैं मधुशाला के अंदर हूं या मेरे अंदर मधुशाला.
ReplyDeleteअसमंजस में हूँ
ReplyDeleteकि मंदिर में
मिलती हो तुम
और तुम्हारे घर भगवान
घर है मंदिर
या मंदिर है तुम्हारा घर
दोनों एक दूसरे में
विलीन हो गए है
अब तुम्हीं बताओ
जाऊं किधर मैं .
जब घर मंदिर हो जाता है और मंदिर घर फिर किधर भी जाया जाए बात तो एक ही है...मंजिल एक ही है....
बहुत ही अच्छा रचना...
जय श्री कृष्ण...आपका लेखन वाकई काबिल-ए-तारीफ हैं....नव वर्ष आपके व आपके परिवार जनों, शुभ चिंतकों तथा मित्रों के जीवन को प्रगति पथ पर सफलता का सौपान करायें .....मेरी कविताओ पर टिप्पणी के लिए आपका आभार ...आगे भी इसी प्रकार प्रोत्साहित करते रहिएगा ..!!
ReplyDeleteतुम्हारे घर से
ReplyDeleteजब भी गुजरता हूँ
मंदिर सा लगता है...
बहुत सुन्दर , निश्छल अभिव्यक्ति।
.
कहाँ गायब हो ?? लिख क्यों नहीं रहे ??
ReplyDeleteअरूण जी, अनुभूति की पराकाष्ठा को छूती एक लाजवाब कविता। जितनी तारीफ करूं, कम लगती है।
ReplyDelete---------
ध्यान का विज्ञान।
मधुबाला के सौन्दर्य को निरखने का अवसर।
बहुत भावभीनी प्रस्तुति |बधाई |
ReplyDeleteआशा
घर है मंदिर
ReplyDeleteया मंदिर है तुम्हारा घर
दोनों एक दूसरे में
विलीन हो गए है
वाह...लाजवाब कविता। बधाई स्वीकार करें
bahut sundar lagi kavita... kunwar kusmesh ji ki baat par hasi aa gayi.. :))
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