इसमें कोई दो मत नहीं है की 'हंस' हिंदी साहित्य की देश की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका है. वर्षो से सुनते और पढ़ते आ रहा हूँ हंस को. सुना है हंस में कहानियों और कविताओं की प्रतीक्षा सूची काफी लम्बी होती है... साल साल भर लग जाते हैं स्वीकृत रचनाओं को छपने में. हंस हिंदी साहित्य का बाज़ार भी है और ब्रांड भी.. यु कहिये की साहित्य का यूनिलीवर है. जनवरी के अंक में कवि सूरजपाल चौहान की एक कविता छपी है 'कुछ कहा नहीं जा सकता' शीर्षक से. कविता की संक्षिप्त भूमिका में कवि का कहना है, "'आउटलुक' (हिंदी) अगस्त २०१० अंक में प्रकाशित मनीषा के लेख 'फतवागीरो के फितूर का दिवालियापन' को पढ़ते हुए" .. मतलब यह कविता अगस्त २०१० में लिखी गई और जनवरी, २०११ के अंक में छप भी गई.. कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'हंस' में तत्काल छपने के लिए क्या जरुरी है.. अपने अल्पज्ञान के कारण क्षमा सहित !
कुछ कहा नहीं जा सकता
(कवि श्री सूरजपाल चौहान की हंस जनवरी २०११ में प्रकाशित कविता)
बहन,
तुमने सच लिखा है
कि -
परमात्मा औरतो के
स्तन देखकर
हो जाता है उत्तेजित .
उसकी-
काम-वासना जाग्रत हो जाती है
बहन-बेटी की
मध्यरेखा देखते ही
उतारू हो जाता है
उपद्रव करने को .
बहन,
तुम्हे ब्रह्मा की कहानी तो ज्ञात होगी
बेटी सरस्वती ....
और फिर.. पुत्र...
नारद .
भगवान
या कहें
परमात्मा का कोई ठौर ठिकाना नहीं
उसे-
कोई लाज-शर्म नहीं.
अपनी ही
बहन या बेटी के अंगो को देखकर
कब मोहित हो जाये
कुछ कहा नहीं जा सकता.
हंस के फ़रवरी अंक में पाठको के पन्ने पर इस कविता पर कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है... यदि आई भी होगी तो शायद संपादक महोदय ने उन्हें स्थान देने में पक्षपात किया होगा. अब आप निर्णय करें कि इस कविता में ' ईश्वर ' को गरियाने के अतिरिक्त कौन सा सौंदर्य, भाव या सन्देश है.
आपकी इस पोस्ट से हंस के अंक की बिक्री संभावना बढ़ी है.
ReplyDeleteयह उस पत्रिका के संपादक मंडल के मानसिक दिवालिए पन का उदाहरण है।
ReplyDeleteइसे तो कोर्ट में ले जाना चाहिए।
पिछले कई महीनों से मैंने हंस पढ़ना बंद कर दिया है।
एक अंक में इन्होनें एक लघु कथा छापी थी। उसका लब्बो लुवाब यह था कि एक बच्चा को जोर की लग रही है- दो तीन बार मम्मी को बुलाता है। मम्मी काम में व्यस्त है। ध्यान नहीं देती। बच्चा को जोर से लगी है। सामने फर्श पर अखबार है। अखबार में हिंदू देवता की तस्वीर है। बच्चा उस पर पाखाना कर राहत महसूस करता है। मम्मी खुश होती है उसने फर्श गंदा नहीं किया।
मैंने उस दिन से हंस पढ़ना बंद कर दिया। आप ईश्वर को नहीं मानते मत मानिए पर हिंदू धर्म के ईश्वर का आप ये इस्तेमाल करेंगे – ऐसी विकृत मानसिकता वाली पत्रिका मैं नहीं पढ़ता।
आरुण जी आपने साहस का काम किया है।
देखता हूं हंस का वह पुराना अंक मिला तो वह लघुकथा भी लोगों की अदालत में पेश करूंगा।
आपकी प्रतिक्रिया व आपके द्रष्टिकोण को नमन....
ReplyDeleteहंस और बाज़ार मे होती करीबी
सोच और आदर मे होती गरीबी...
आपका धन्यवाद इसको हमतक पहुँचने के लिए....
कविता ठीक है, मगर यही बात लिखने के लिए कुछ और शब्द भी काम में लिए जा सकते थे. रही बात हंस या अन्य प्रिंट पत्रिकाओं की तो वहाँ छपने के इंतज़ार से अच्छा ऑनलाइन छापो मस्त रहो ज्यादा बेहतर है.
ReplyDeleteउफ़..... आपने पुराना जख्म नोच दिया. मैं 'हंस' के साहित्यिक पत्रिका होने पर सहमत नहीं हूँ. साहित्य कभी भी संस्कृति-विमुख नहीं होता. जितने भी धर्म हैं ये सभी म्हारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं. ये सभी हमारी सभ्यता के साथ ही विकसित हुए हैं. सिन्धु घाटी की सभ्यता में बहुदेववाद की प्रथा बताई गयी है. यही तो है हिन्दू धर्म या सनातन धर्म. अगर आप उस सभ्यता को नहीं मानते हैं तो मैं आपको 'असभ्य' कहने से नहीं हिचकता हूँ. मैं हिंदी साहित्य का छात्र रहा हूँ. लिखने-पढने का शौक भी रहा है. किसी विश्वविद्यालय ने स्नातक और सनातकोत्तर की परिक्षाओं में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान भी दिया है. मैं छात्रा जीवन से ही अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं का नियमित-अनियमित पाठक रहा हूँ लेकिन हंस के सिर्फ दो अंक पढ़े मैं ने. और वर्षों से लगभग 2003 से मैं ने इस पत्रिका को हाथ तक नहीं लगाया क्यूंकि मैं मानता हूँ कि इसके स्पर्श से मेरी सुभ्रा-श्वेता सरस्वती मलीन हो जायेंगी. यह तो सनातन धर्म का औदार्य है कि ऐसी कलुषित अभिव्यक्ति के बाद भी ऐसे लोग समाज में प्रतिष्ठा पाते रहते हैं वरना किसी और धर्म या मत के पूजनीय चरित्र पर इसके आधे भी साहस करें तो इनके सर कलम करने पर भी इनाम और फतवा जारी हो जाए.
ReplyDeleteअरुणजी, मैं तो यही कहूँगा कि कीचर में पैर मारने से पैर ही गंदा होगा. मुझे तो मुंशी प्रेमचंद के लिए अफ़सोस है.... देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान. अब हंस की तरफ देखिएगा भी मत क्योंकि "हंसा था सो उड़ गया कागा भाया दीवान ! रे ब्रह्मन तू लौट जा... व्याघ्र कही यजमान...?"
सहमत हूँ आपकी बात से ... ये तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग और इनकी पत्रिका ...
ReplyDeleteआज नंगा पन लिखा और बिकता है ... ये विडंबना है समाज की ....
यह न हंस है और न हँस है
ReplyDeleteपत्रिका समाज के लिए कंस है
इसके लिये संपादन का वर्तमान स्तर उत्तरदायी है। हँस का नाम जुड़ा हुआ प्रेमचंद से। उस समय के अंक पढ़ने से अवश्य ही आनंद आयेगा।
ReplyDeleteहम भौतिकता की पराकाष्ठा की ओर बढ़ते समाज के संपादक से अगर कोई गुणात्मक अपेक्षा रखते हैं तो भ्रम में हैं।
कोई बड़ी बात नहीं अगर आज के हँस में एकसक विज्ञापन भी छपते हों जो फुटपाथिया अखबारों की कमाई का मुख्य साधन हैं।
सच में कुछ कहा नहीं जा सकता है.
ReplyDeleteसलाम.
कविता का शीर्षक बिल्कुल फिट बैठ रहा हमसभी के सोंच को बाहर लाने के लिए "कुछ कहा नहीं जा सकता " हाँ मानसिकता पहलेवाली नहीं रह गयी नहीं तो हंस का पहले का काल और और अब का काल .......मूल्याङ्कन यही साबित कर रहा ब्रांड को बाज़ार में बिकने से मतलब रह गया है अब ......बहुत अच्छी सोंच के साथ आपने ये प्रश्न उठाया .....आभार
ReplyDeleteविवादास्पद है यह! लेकिन ईश्वर को गरियाना साहित्य की परिभाषा की सीमा से बाहर कैसे है?…हंस की यह कविता क्या गलत कहती है?…हाँ, खयाल रखना चाहिए लेकिन इस कविता को गलत मानने-समझने का कोई कारण नहीं दिखता। क्योंकि अगर हम पुराणों-वेदों को पढ़ें तो एक से एक ऐसे तथ्य आते ही हैं जिसके कारण हम इन्हें पढ़ा नहीं सकते और बोल नहीं सकते…फिर भी वे संस्कृत साहित्य के बड़े ग्रंथ हैं, आदर पाते हैं…
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